कबीर
सतगुरु कबीर बन्दीछोड सदां सहाय
।। सतसंग ।।
घर में घर दिखलाई दे , सो गुरू चतुर सुजान।
पांच शब्द धुनकार धुन , बाजै शब्द निशान।।
यह पांच शब्द इस प्रकार हैं- ज्योति निरंजन , ऊँकार , ररंकार , सोहं तथा आवाजे हक या सतनाम । यह पांच शब्द संतों की पूंजी हैं । ग्रंथ " आदि-भेद " में सतगुरु कबीर साहेबजी ने इन पांच शब्दों के विषय में कहते हैं कि - धर्मदास ! यह पांच शब्द तो उस " सार-शब्द " के केवल संकेत मात्र हैं , निशान हैं । मेरा " सार-शब्द " इनसे परे है । बड़े-बड़े सन्त इन पांच शब्दों में उलझ गये , लेकिन " सार-शब्द " बिना मेरे कोई लखा नहीं सकता । फरमाया :-
मेरी नजर में मोती आया है ।। टेक ।।
कोई कहे हल्का कोई कहे भारी ,
सब जग भरम भुलाया है ।
बाजा बाजें अनन्त भांति के ,
सुन के मन ललचाया है ।।
चतुर दल कमल त्रिकुटी राजे ,
ऊँकार दरसाया है ।
ररंकार पद श्वेत सुन्न मध्य ,
षट दल कंवल बताया है।।
पारब्रह्म महा सुन्न मंझारी ,
जहां नि:अक्षर रहाया है ।
भँवर गुफा में सोहं राजे ,
मुरली अधिक बजाया है।।
यह सब बातें काया मांही ,
प्रतिबिम्ब अंड का पाया है।
प्रतिबिम्ब पिण्ड ब्रह्मण्ड है नकली ,
असली पार बताया है।।
ताकी नकल देख माया ने ,
काया मांहि दिखाया है ।
यह सब काल जाल का फंदा ,
कल्पित मन ठहराया है।।
करके कृपा दयानिधि सतगुरु,
घट के बीच लखाया है ।
कहें कबीर सार पद सतगुरु,
न्यारा कर दिखलाया है।।
बात सीधी और स्पष्ट है कि , अण्ड के पार जो सत्यपुरष की रचना है , वह असली है । वास्तविक है । सत्य और शब्द की रचना है । अण्ड के बीच जो इक्कीस ब्रह्मण्ड हैं उनमें जो रचना है , वे सत्य - रचना जो अण्ड के पार मण्ड - मण्डानों में है उसकी नकल है । नकल का अर्थ। है - वैसी रचना का प्रयास किया गया।
परन्तु वैसी रचना की न जा सकी । एक हीरा असली होता है , दूसरा नकली । फिर माया ने ब्रह्मण्डों की रचना की , जो असल की नकल है, उसकी छाया का प्रतिबिम्ब काया में डाला है ।
" जो ब्रहमण्डे सोई पिण्डे " ।
जो ब्रह्मण्ड में है उसका प्रतिबिम्ब काया में है। पहले पांच शब्दों व ब्रहमण्ड की रचना की , फिर उन पांच शब्दों का प्रतिबिम्ब काया में डाल दिया ।
इसलिए सतगुरु कबीर साहेबजी फरमाते हैं कि - भाई ! यह तो बहुत अच्छा है कि , तुमने आत्मा पर चढे़ गिलाफ अर्थात् पड़दे उतार दिए और निजरूप को देखा । परन्तु काया में पांच शब्दों को जो तुमने मालिक - ए - कुल या सत्य पुरष माना यह गलत है । सत्यपुरष इस काया में सीमित नहीं है । और ना ही इस काया में कुल ब्रह्मण्ड समां सकते हैं । काया के शिर का भाग इतना छोटा है कि उसमें एक छोटा सा सरोवर भी नहीं आ सकता ।
ब्रह्मण्ड कहां से आ जाएंगे ? इसलिए काया में केवल टेलीविजन सेट लगा है , जिस पर ब्रह्मणडों के प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ते हैं , जैसा कि टेलीविजन सेट कहीं और जगह का चित्र हमें दिखलाता है । वह चित्र हमें टेलीविजन पर दिखाई देते हैं । इस काया में उसी प्रकार हमें ब्रह्मण्डों का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है ।
वह रचना , वह सत्यलोक , इस काया से बाहर है और उस लोक को जाने के लिए जो शब्द है , वह " सार - शब्द। " इन पांच शब्दों से पृथक है । इसलिए फरमाया :-
निरंकार निर्गुण है माया,
तुम को नाच नचाई हो ।
चर्म दृष्टि का कुल्फा दे के ,
चौरासी भरमाई हो ।।
चार वेद है जाकी स्वांसा ,
ब्रह्मा अस्तुति गाई हो।
सो कथि ब्रह्मा जगत भुलाए,
तेहि मार्ग सब जाई हो ।।
कहते हैं - जितने ऋषि, मुनि , योगी तथा सन्त हुए सब ने शब्द मार्ग को पकड़ा । क्योंकि , निःतत्व को चर्म दृष्टि से नहीं देखा जा सकता ।
बहुत जीव तो बुद्धि के दायरे मैं रहे । कुछ लोग शब्द मार्ग से गये , लेकिन वे काया के पांच शब्दों में उलझ गये । उनको पूरा सतगुरु न मिला , जो आगे का मार्ग दिखाता । इसलिए सतगुरु कबीर साहेबजी ने फरमाया :-
सभी सतगुरु के नेमी प्रेमी हंसजनों को सविनय सादर सप्रेम साहेब बंदगी साहेब जी
जय
जिला कबीरधाम
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धन्यवाद और आभार ईश्वर का🙏🙏